अपने यौवन की नौका को देख
मैं मंद-मंद मुस्काता हूँ
नहीं डूबेगी कभी यह नौका
यह सोच-सोच इठलाता हूँ //
काम-क्रोध और लोभ-मोह की
लहरें उठ रही यौवन में
ये सब दुर्गुण कहाँ थे मुझे में
अठखेली भरती बचपन में //
बचपन की नौका ,कब डूब गई
कोई कुछ समझ न पाया
यौवन की नौका भी डूबेगी
तब शायद मर जाए माया //
बचपन की नौका समय ने छीन ली है
ReplyDeleteऔर हम दिन-प्रतिदिन समय के चंगुल में फसते जा रहे हैं !
भाव पूर्ण रचना!
बात तो आपकी सही है, भाई...........
ReplyDeleteडूबनी तो जरुर है एक दिन हर नैया !
समझा जाते तो लोग यूँ न रोते भैया !!
सार्थक और गंभीर रचना---
ReplyDeleteनिष्काम बचपन से योवन में आते ही तरह तरह के चक्रों कुचक्रों में फंस जाता है इंसान. गंभीर प्रस्तुति.
ReplyDeleteकाम-क्रोध और लोभ-मोह की
ReplyDeleteलहरें उठ रही यौवन में
ये सब दुर्गुण कहाँ थे मुझे में...........मुझ में ...............
अठखेली भरती बचपन में //
बहुत बढ़िया रचना लाए हो पांडे जी .दर्शन लिए जीवन और जगत का ...
माया तेरे तीन नाम परसी पर्सा परशराम .आदमी माया को नहीं छोड़ता माया ही आदमी को छोड़ जाती है कबीर बहुत पहले चेता गए थे -माया महा ठगनी हम जानी ,तिरगुन फांस लिए करि जोरे ,बोले मधुरि.. वाणी .......
bahut sunder prastuti,,,,man ke vicharon ki uttal tarange,,,jo man ke manas patal par prashno ki deerdhaa banatee huyeemm
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती सार्थक रचना |
ReplyDeleteबहुत खूब....
ReplyDeleteयथार्थवादी.....
अपने यौवन की नाव देख
ReplyDeleteमैं मंद , मंद मुस्काता हूँ
न डूब सके मेरी नौका
मैं सोच, खूब इठलाता हूँ !!
शुभकामनायें !
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