( a poem written after the announcement to uproot the subsidy )
अतीत काल से ही
पैवंद पहचान है गरीबी की //
लाखों करोड़ों भारतीय
पैवंद लगे चादर के बल पर जीते हैं
जिसे ओढ़ते वक़्त
टेढा करना पड़ता है घुटना //
उन्हें नहीं दिखता
सरकारी पैवंद
जो उन चादरों में लगाए गए हैं
पैवंद हट जाने से
मुहाल हो गया उनका जीना //
सरकार ...
अब अश्वाश्नो की सुई से
उसे सिल देगी //